कण्वआश्रम का और इस देश का इतिहास अत्यधिक पुराना है और इस देश तथा विश्व मे मनुष्य के बौद्धिक विकास से जुडा हुआ है। पुरातत्व विषेशज्ञयो, प्राणीवैज्ञानिक तथा मानवशात्रीयों द्वारा जीवाश्मों के अविशेष के अभी तक के अध्ययन के आधार पर ये निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य की उत्पत्ति अफ़्रीका महाद्वीप मे हुई थी पर ये भी सत्य है कि उस मानव का संस्कृति, बौद्धिक तथा सामाजिक विकास इस भूखण्ड मे हुआ था जिसे आज भारतवर्ष या इन्डिया या हिन्दुस्थान कहते है।
मालिनी के तट पर स्थित "कण्वआश्रम" का वर्णन भरत के अनेक प्राचीन ग्रन्थों मे मिलता है। वेदों, पुराणों, महाभारत तथा महाकवि कालीदास की रचनाओं मे कण्वाश्रम का जीवान्त वर्णन मिलता है । स्कन्द पुराण के केदार खण्ड के ५७ वे अध्याय मे कण्वआश्रम का गुण-वर्णन इस प्रकार किया है :
कण्वाश्रम समारभ्य यावन्नदं गिरिर्भवेत। तावत क्षेत्र परम भुक्ति-मुक्ति प्रदायकः।।
कण्वो नाम महातेज महषिॊ लोक विश्रुतः। तस्याश्रम पदे नत्व भगवत रमापतिम् ।।
"जो कण्वआश्रम यहाँ से नन्द गिरी पर्वत तक विस्तृत है वह एक परम पुण्य स्थान है तथा भक्ति, योग तथा मोक्ष का केन्द्र है । वहॉ सम्पूर्ण लोक मे विख्यात महा तेजस्वी कणव ऋषी का आश्रम है तथा जहॉ अपना शीश नमन कर सम्पूर्ण सुख और शान्ती प्राप्त होती है । "
इस के अतिरिक्त इस देश के और विश्व के सबसे विशाल तथा प्राचीन ग्रन्थ "महाभारत" जिस मे एक लाख श्लोक है, मे भी मालिनि के तट पर स्तिथ कण्वआश्रम का वर्णन कई जगह किया गया है। राजा चन्द्र गुप्त मौर्य के दरबार मे ग्रीक दूत मेगस्थनीज़ जो कई वर्ष तक भारत मे रहा ने अपने अनुभव के आधार पर एक पुस्तक लिखी जिस का नाम "Indika" था । वर्तमान मे ये पुस्तक तो मौजूद नहीं है पर उस को पढने वालों कुछ ग्रीक लेखकों ने लिखा है कि "Indika" मे कण्वाश्रम का वर्णन किया गया है । इस के अलावा Alexender Cunninghum जो कि अंग्रेज़ों के काल मे भारतीय पुरातत्व विभाग के मुखिया थे ने भी अपनी १८६५ मे लिखी गई एक रिपोर्ट लिखा है कि जिस नदी को ग्रीक दूत मेगस्थनीज़ ने अपनी पुस्तक मे सम्बोधन किया है वो मालिनी नदी ही है, जो गढवाल मे बहती है और जिस के तट पर शाकुनतला बड़ी हुई ।
इन सब एतिहासिक तथ्यों के अलावा एक व्यक्ति जिस ने सत्यतः कण्वआश्रम की समय से अदृष्ट और विलुप्त होती हुई पहचान को एक बार फिर ऊजागर कर सबके सम्मुख एक नृत्य नाटिका अभिज्ञान शाकुन्तलम के रूप मे प्रस्तुत किया वो थे महान कवि कालीदास। समय की विभीषिका तथा विदेशी आक्राताओं दवारा लूटपाट ने कण्वआश्रम के भौतिक अस्तित्व को तो समाप्त कर दिया पर अपनी लेखनी से हज़ारों वर्ष बाद भी कण्वआश्रम का सजीव चित्रण कर महाकवि कालीदास, जिन्हें उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियों का सम्पूर्ण ज्ञान था, ने अपनी कृति " अभिज्ञान शाकुन्तलम् " मे मालिनि के तट पर बसे कण्वआश्रम, उससे जुड़े समस्त पात्रों तथा घटनाओं को अमर कर दिया।
अगर हम वर्तमान मे मौजूद सभी तथ्यों को पिरोयें तो ये तो निश्चित है कि मालिनी के तटों के निकट एक बडे भू भाग पर कण्वाश्रम स्तिथ था । वो एक विश्व विख्यात आध्यात्मिक तथा ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र था, एक आदर्श महा विद्यालय जहॉ पर दस सहस्र विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। भारतीय इतिहासकारों तथा विद्धवानों द्वारा लिखी गई प्राचीन भारत की इतिहास की पुस्तकों पर अगर हम एक नज़र डाले तो इन सब इतिहासकारों ने अपनी इन पुस्तकों के नाम "प्राचीन भारत", "भारत का प्राचीन इतिहास" आदि रखे है और इन सब पुस्तकों मे विद्धवानों लेखकों द्वारा ये स्वीकारा गया है कि "उत्तर मे हिम से ढके पर्वतों के नीचे और महासागर के उपर मे जो भू भाग है उसमें भारत के वंशज निवास करते हैं
उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षम् तद् भारतम् नाम, भारती यत्र सन्ततिः ।।“
पर ये एक अति अत्याधिक आश्चर्य की बात है कि इन मे से किसी भी इतिहासकार ने अपनी पुस्तको मे कहीं भी, ना तो सम्राट भरत या उनके वंशज का वर्णन किया है और ना उन समय उनके साम्राज्य की आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक स्तिथी का वर्णन, जो कि इस विशाल भू खण्ड मे फैला हुआ था । चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्म स्थली "कण्वआश्रम" का कही भी कोई वर्णन इन पुस्तको मे नही मिलता है।
कण्वाश्रम और भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता का विनाश एक साथ शुरू हुआ। अनेक असफल प्रयासो के बाद अन्नतः 12 वी सदी मे विदेशी आक्रान्ताओं ने इस राष्ट की सीमाओं को भेधने मे सफलता मिली। 1191 मे तरायन के पहले युद्ध हारने के बाद महोमद गौरी एक बार फिर अपनी चोर, लुटेरो की सेना के साथ उसी युद्ध के मैदान मे राजपुताना के राजा से युद्ध करने आ धमका। दुर्भाग्यवश पृथ्वी राज चौहान को इस निर्णायक युद्ध मे पराज्य का सामना करना पडा और इस के फलश्वरूप विदेशी आक्रान्ताओं इस देश मे अपने पैर जमाने मे सफलता पाई। दिल्ली मे अपनी सत्ता मजबूत करने के बाद मुसलमान लुटेरो ने एक तरफ से लूटपाट कर के इस देश के सभी धार्मिक तथा संस्कृतिक स्थलो को धवस्त कर दिया। हरिद्वार तथा उसके आस-पास के क्षेत्र जिसमे कण्वाश्रम भी आता था मे लूटपाट कर अत्यधिक क्षति पहुंचाई। 1227 मे एक बार फिर ईलतमस के लुटेरो ने बिजनौर, मंडावर तथा कण्वाश्रम मे लूटपाट की इस देश की सभ्यता से जुड़े मन्दिर, मठ, पुस्तकालय, तथा अन्य संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया।
१२ वी शताब्दी मे जो विध्वंस आरम्भ हुआ वो १६ वी शताब्दी के मध्य तक जारी रहा और इस मे सभी धार्मिक तथा आध्यात्मिक स्थलो को अभूतपूर्व क्षति पहुँचाई। इन सब प्रहारों से कण्वाश्रम और उससे आस पास के क्षेत्रों का विघटन इस विश्व विख्यात शिक्षा निकेतन के अस्तित्व को भूमीसंगत करने के पश्चात ही समाप्त हुआ। यहाँ हरी भरी घाटी मे कल-२ बहती मालिनी नदी, घनघोर जंगल और अतीत की यादों के सिवाय कुछ नही बचा। 18 वी शताब्दी मे जगली जानवर की अधिक्ता देख कर अंग्रेज इन जंगलो मे शिकार करने आये। शिकारी जिम कोरबेट भी इस क्षेत्र मे शिकार करने आया था पर उसने अपना सारा जीवन गढवाल और कुमांउ क्षेत्र के लोगो को वहां मौजूद भयंकर नरभक्शी जानवरो से बचाने मे गुजार दिया। लोगों के इस क्षेत्र से पलायन के बाद इस क्षेत्र के घने जंगलों मे डाकुओं ने अपना डेरा बना लिया और सुल्ताना डाकू और उसके गिरोह का इस क्षेत्र मे एक क्षत्र अधिकार हो गया। १९३२ मे सुल्ताना डाकू की मौत के बाद डाकुओं की इस क्षेत्र मे दहशत कम होने पर लोग यहॉ आ कर बसने लगे और कण्वाश्रम एक बार फिर इस देश के मान चित्र मे एक बार फिर उभरने लगा।