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पौराणिक पारम्परिक कथा

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    विभिन्न कथावाचक दा्रा महाभारत मे वर्णित अनगिन्ति कथाओं तथा कहानियों के जाल मे छुपी है राजा दुष्यन्त, उनकी पत्नी शकुन्तला तथा सम्राठ भरत की कहानी है। जनमेजय ने जब कथावाचक वैशम्पायन जी से कुरूवंशज की उत्पति के बारे मे पूछा तो कथावाचक ने अपनी कथा शुरू की और कहा कि एक समय की बात है कि एक बहुत ही शक्तीशाली तथा निर्भय राजा दुष्यन्त थे जो कि धर्म का पालन करता थे तथा अपनी प्रजा मे अत्याध्कि लोकप्रीय थे। एक दिन जंगल मे शिकार पर निकले राजा एक हिरन का पीछा करते हुए एक आश्रम मे पहुच गये। वहां फलो तथा फूलो से लदे पेड और नदी मे बहते हुए स्वच्छ शीतल जल को देख उनको बहुत आश्चर्य हुआ। कुछ साधू – संत जो कि नदी किनारे सूखी लकडी बीन रहे थे, ने पूछने पर बताया कि आगे नदी के तट पर कण्व ऋषी का आश्रम है। अपने सैनिको को बाहर छोड कर दुष्यन्त आश्रम मे प्रवेश करते है। आश्रम मे उनका स्वागत एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री दवारा किया जाता है। वो राजा को आदर से आश्रम के अन्दर बुलाती है तथा कहती है कि उनके पिता कण्व आश्रम मे नही है। उनकी बातो पर आश्चर्य व्यक्त कर दुष्यन्त कहते हैं कि वो कण्व की पुत्री कैसे हो सकती है क्योकि कण्व तो बर्हमचारी है। शकुन्तला फिर राजा को बताती है जो कि उनके पिता कण्व ने उनको बताया है, कि महार्षि विश्वामित्र की कठोर तपस्या से इन्द्र देवता अत्याधिक विचलित हो जाते है और उनकी तपस्या मे विघ्न डालने के उद्देश्य से अप्सरा मेनका को धरती पर भेजते है। मेनका अपनी क्रीयाओं से विश्वामित्र का ध्यान भंग करने के अपने उद्देश्य मे सफल होती है। उन दोनो के संयोग से मेनका एक कन्या को जन्म देती है। मेरी माता मुझे तत्पश्चात वन मे मालिनी के तट पर छोड़ कर देव लोक चली जाती है।

सौभाग्यवश वन मे गुज़रते हुए महार्षि कण्व का ध्यान एक जगह अत्याधिक कोलाहल करते पंछियों की तरफ जाता है। जांच करने पर उनकी नज़र मुझ पर पड़ती है और वो मुझे उठा कर आश्रम मे ले आये तथा मेरा पालन-पोषण किया। शारीरिक जनक, प्राणो का रक्षक तथा अन्नदाता तीनों ही लोग पिता समान होते हैं। क्योकि उन्होने मेरी रक्षा की है तथा अन्न खिलाया है इसलिए कुलपति कण्व मेरे पिता है। शकुन्तला के विचार, आचर्ण और सौन्दर्य से प्रभावित राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला को अपनी पत्नी बनने का अनुरोध किया तथा कहा कि वो उनसे गन्धर्व विवाह कर ले। शकुन्तला ने राजा से प्रतीक्षा कर अपने पिता के आने का इन्तज़ार करने को कहा ।पर राजा के पुनः अनुरोध कर शकुन्तला से गन्धर्व विवाह करने की इच्छा वयक्त की।शकुन्तला ने अन्चिछा से गन्धर्व विवाह की सहमति दे दी, पर उससे पूर्व शकुन्तला ने राजा दुष्यंत से प्रतिज्ञा ली कि उनके पाणिग्रहण से जो पुत्र उत्पन्न होगा वो ही उनका उत्तराधिकारी होगा और इस देश का सम्राट बनेगा। राजा ने बिना सोचे समझे शकुन्तला की बात स्वीकार कर ली और गन्धर्व विधि से शकुन्तला का पाणिग्रहण किया। आश्रम मे कुछ समय बितने के उपरान्त राजा दुष्यंत ने लौटने से पहले शकुन्तला को ये विश्वास दिलाया कि वो उसे लेने के लिए अपनी चतुरंगिणी सेना भेजेंगे। ये आश्वासन देने के बाद दुष्यंत ने अपनी राजधानी को प्रस्थान कर गये। कुलपति कण्व जब आश्रम मे वापस आये तो उन्हे सब बातों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने शकुन्तला से कहा कि जो गन्धर्व विवाह उसने किया है वो धर्म के अनुसार है। क्षत्रियों मे गन्धर्व विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है। इसके अतिरिक्त राजा दुष्यंत एक उदार तथा धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति है।

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    कुछ समय बाद शकुन्तला एक सुन्दर बालक को जन्म देती है। ये बालक कण्वाश्रम मे कण्व महार्षी की देर-रेख मे बडा होता है। प्रसये हिमवतो रभये मालिनीमामितो नदीम् । जातमुतसृज्यनतं गर्भ मेनका मलिनिमनु: । अत्यन्त ही सुन्दर हिमवत के अन्तिम प्रदेश है जहॉ कि पवित्र मालिनी के तट पर मालिनी अनुस्वरूप मेनका के गर्भ से उत्पन्न शाकुन्तला ने एक शिशु को जन्म दिया है शकुन्तला का अपने पुत्र के साथ राजा दुष्यंत से मिलना और अन्ततः राजा का उनको स्वीकार करना तथा अपने पुत्र को युवराज घोषित करने के कई प्रसंग है। महाभारत के अनुसार शकुन्तला के पुत्र के बडे होने पर उसकी अनेक योग्यतायें देखकर महर्षि कण्व ने ये निश्चय लिया कि अब वो अब युवराज होने योग्य है और उसका पलन-पोषण अब राजा दुष्यन्त की देख- रेख मे, महलो मे होना चाहिये ताकि वो राज्य के राज-काज सीख सके। महार्षी कण्व के आदेश अनुसार शकुन्तला अपने पुत्र और आश्रम के कुछ साधू-संतो तथा आश्रम वासियो के साथ राजा दुष्यन्त की राजधानी के लिए प्रस्थान करती है।

शकुन्तला अपने पुत्र के साथ राजा दुष्यन्त के दरबार मे जाती है तथा राजा दुष्यन्त को उनको अपना दिया हुआ वचन को याद दिलाती है और कहती है कि ये जो बालक मेरे साथ है वो उनका पुत्र है तथा वचन अनुसार उसे युवराज बनाओ। इस पर राजा उसे बहुत बुरा - भला कह अपमानित करते है और अनेक अपशब्द कहते है। शकुन्तला अपनी बात समझाती रही पर सभा मे उपस्थित अन्य दरबारियों भी उसका तिरस्कार करते है। अत्यंत दुखी मन से शकुन्तला अपने पुत्र के साथ राजा के दरबार से चल पड़ती है। पर उसी समय आकाश से भविष्यवाणी होती है " कि राज दुष्यन्त तुम शकुन्तला का अपमान मत करो तथा जो वो कह रही है वो सत्य है और तुम राजा दुष्यंत ही इस बालक के पिता हो। तुम्हारे द्वारा भरण-पाषाण के कारण ही इस बालक का नाम "भरत" होगा।" राजा दुष्यंत तब सभी दरबारियों को सम्बोधित कर के कहते है कि " मैं तो जानता था कि ये मेरा पुत्र है पर शकुन्तला के कहने पर उसे अगर मै उसे स्वीकार करता तो सारी प्रजा मुझ पर सन्देह करती और इस उद्देश्य से प्रेरित हो कर मैंने शकुन्तला से ऐसा व्यवहार किया"। फिर राजा शकुन्तला को रानी तथा अपने पुत्र को युवराज के रूप मे स्वीकार करते है।

दुष्यंत के बाद भरत को उनका सिंहासन मिला तथा इस भूखण्ड के सभी राजाओं को पराजित कर एक विशाल राज्य की स्थापना की। भरत ने अनेक यज्ञ कराये तथा उनके नाम से ही इस देश का नाम "भारतवर्ष " पड़ा। भरत के वंशजों ने महाभारत का युद्ध लड़ा। भरत के पुत्र भमन्य हुए, और उनके पुत्र सुहोत्रा और सुहोत्रा के पुत्र थे हस्ती जिन्होंने हस्तिनापुर बसाया।